
छंद किसे कहते हैं ?छंद कितने प्रकार होते है वर्णन करें
”छन्द, उस पध-रचना को कहते हैं, जो वर्णों अथवा मात्राओं की गणना, यति, गति ,क्रम एवं तुक के विशेष नियमों से बँधी हो।”
”अर्थात् “जिस कविता में यति तथा गति का नियम हो, चरणों के अंत में समता हो और मात्राओं व वर्णों का रचनाक्रम हो, उसे छन्द कहते हैं।”
छंद में प्रायः चार चरण होते हैं। जो छंद दो पंक्तियों में लिखे जाते हैं उसकी प्रत्येक पंक्ति को ‘दल’ कहते हैं। कुछ छन्दों में छह चरण भी होते हैं, छप्पय, कुंडलिया, अमृत ध्वनि आदि ऐसे ही छंद हैं।
वर्गों के प्रकार : छंद में दो प्रकार के वर्ण होते हैं-गुरु वर्ण और लघुवर्ण । गुरु वर्ण का संकेत ‘s ‘ और लघुवर्ण का संकेत ‘।’ है। छंद में वर्गों का लघु एवं गुरु होना उच्चारण पर आधारित है। संयुक्त अक्षरों के पूर्व का वर्ण लघु होते हुए भी गुरु माना जाता है। जैसे-
अत्याधुनिक SS III
विषम चरण : छंद के प्रथम और तीसरे चरणों को विषम चरण कहते हैं।
सम चरण : छंद के दूसरे और चौथे चरणों को सम चरण कहते हैं।
छन्द के प्रकार –
वैदिक छन्द
लौकिक छन्द
मात्रिक छन्द या जाति वर्णिक छन्द या वृत्त मात्रिक छंद वह छंद है, जिसमें वर्णों का क्रम और संख्या एक समान नहीं हो; किन्तु मात्राएँ प्रत्येक पद में समान हों। वर्णिक छंद में चारों चरणों में वर्ण क्रम और संख्या दोनों एक समान होते हैं।
छंद के तीन उपभेद भी होते हैं:
१। सम छंद : चारों चरणों के लक्षण जिसमें एक समान हों।
2. अर्ध सम छंद : जिसके पहले और तीसरे चरण एक से हों और दूसरे एवं चौथेचरण एक से हों।
3. विषम छंद : जो सम छंद और अर्द्ध सम छंद से भिन्न हो।
मात्राओं और वणों की संख्या के आधार पर छंदों को चार वर्गों में बाँटा गया है:
1. साधारण छद: मात्रिक छन्दों में 32 मात्राओं तक के छन्द को ‘साधारण छन्द’ कहा जाता है।
2 .दंडक छंद : 32 मात्राओं से अधिक मात्रावाले छंदों को ‘दंडक छंद’ कहा जाता है।
3. साधारण वृत्त: वर्णिक वृत्तों में 26 वर्ण तक के वृत्त ‘साधारण वृत्त’ कहलाते हैं।
4 दंडक वृत्त: वर्ण वृत्तों में 26 से अधिक वर्षों के वृत्त को ‘दंडक वृत्त’ कहा जाता है।
दग्धाक्षर
अशुभ या दग्धाक्षर को छंद के आदि में नहीं रखा जाता है। 19 अक्षर अशुभ यादग्धाक्षर कहलाते हैं। झ, ह, र, भ और ष को छंद शास्त्रियों ने अशुभ वर्ण माना है। इन वर्गों को छंद के आदि में नहीं रखा जाता है। इनके प्रयोग से छंद की सुन्दरता घट जाती है, किन्तु यदि यही वर्ण छंद के आदि में गुरु होकर आए तो दोष नहीं माना जाता है।
छंदोबद्ध रचनाओं की विशेषताएँ:-
छंदोबद्ध रचनाओं की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-
> छंदोबद्ध रचनाएँ सुनने और सुनाने में मजेदार होती है?
> छन्दोबद्ध रचनाएँ गेय होने के कारण स्मृति में अधिक दिनों तक बनी रहती हैं अर्थात् शीघ्र ही कंठस्थ हो जाती हैं।
> छन्दोबद्ध रचनाओं के स्मरण हो जाने पर तार्किक शक्ति बढ़ जाती है।
> गंभीर विषयों को छन्दों में लिखकर सुगम बनाया जा सकता है ।
> छंद का आधार रहने पर बड़े-बड़े विचारों को कम शब्दों में प्रकट किया जा सकता है ।
पारिभाषिक शब्द:-
चरण :
छन्द की हर पंक्ति को ‘चरण’ या ‘पाद’ कहा जाता है।
मात्रा :
किसी स्वर के उच्चारण में लगनेवाले समय को ‘मात्रा’ कहते हैं।
यति :
विराम को ही यति कहा जाता है। छन्द पढ़ते समय चरण के किसी खासस्थान पर कुछ देर के लिए विराम होता है, जहाँ ठहरा जाता है। इस ठहरने की क्रिया को ही ‘यति’ कहते हैं।
गति :
हर छन्द में एक प्रकार का प्रवाह होता है, जिससे उसमें माधुर्य आता है और छन्द लयपूर्ण हो जाता है, इस पद-प्रवाह को ही ‘गति’ कहते हैं।
इसे याद रखने के लिए यह सूत्र बहुत ही उपयोगी है।
गति :
हर छन्द में एक प्रकार का प्रवाह होता है, जिससे उसमें माधुर्य आता है और छन्द लयपूर्ण हो जाता है, इस पद-प्रवाह को ही ‘गति’ कहते हैं।
गण :
तीन वर्गों के समूह को ही ‘गण’ कहा जाता है। वर्णिक छंद में वर्णों की गणना
इसी गण के द्वारा होती है। गण के आठ प्रकार होते हैं :
1. यगण 2. मगण 3.तगण
4. रगण 5. जगण 6. भगण
7. नगण और 8. सगण।
दोहा छंद
यह सोरठा छंद के विपरीत होता है। यह अर्ध सम मात्रिक छंद होता है, इसमें पहले और तीसरे चरण में 13-13 तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
जैसे:-
Sll SS Sl S SS Sl lSl
“कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
lll Sl llll lS Sll SS Sl
समय पाय तरुवर फरै, केतक सींचो नीर।।
सोरठा छंद
यह दोहा छंद के विपरीत होता है, यह अर्धसममात्रिक छंद होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
जैसे:-
lS l SS Sl SS ll lSl Sl
कहै जु पावै कौन, विद्या धन उद्दम बिना।
S SS S Sl lS lSS S lS
ज्यों पंखे की पौन, बिना डुलाए ना मिले।
रोला छंद
इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर एक चरण में 11 और 13 के क्रम से 24 मात्राएँ होती हैं। रोला एक मात्रिक छंद होता है।
जैसे:-
SSll llSl lll ll ll Sll S
हे देवी। यह नियम सृष्टि में सदा अटल है,
ऽ ऽऽ ।। ।।। ऽ। ऽ ।ऽ ।।। ऽ
रह सकता है वही, सुरक्षित जिसमें बल है।
।। ।।ऽ ऽ ।ऽ ।ऽ।। ।।ऽ ।। ऽ
निर्बल का है नहीं, जगत में कहीं ठिकाना,
ऽ।। ऽ ऽ ।ऽ ।।। ऽ ।ऽ ।ऽऽ
रक्षा साधन उसे, प्राप्त हों चाहे नाना।।
ऽऽ ऽ।। ।ऽ ऽ। ऽ ऽऽ ऽऽ
चौपाई छंद
यह एक मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर चरण में 16 मात्राएँ होती हैं।
जैसे:
बिनु पग चले सुने बिनु काना।
I I I I I S I S I I S S = 16 मात्राएँ
ll ll Sl lll llSS
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
रघुकुल रीति सदा चलि आई
।।।। ऽ। ।ऽ ।। ऽऽ
प्राण जाय पर वचन न जाई
ऽ। ऽ। ।। ।।। । ऽऽ
कुंडलियाँ छंद
यह एक विषम मात्रिक छंद होता है, इसमें 6 चरण पाए जाते हैं। शुरू के 2 चरण दोहा के होते है और बाद के 4 चरण उल्लाला छंद के होते हैं। इस तरह हर चरण में 24 मात्राएँ होती हैं।
जैसे:-
और’ शब्द का लोप हो, द्वन्द्व होवे समाप्त
ऽ। ऽ। ऽ ऽ। ऽ ऽ। ऽऽ ।ऽ।
संख्यावाची प्रथम पद, आता द्विगु के साथ।
ऽ ऽ ऽ ऽ ।।। ।। ऽऽ ।। ऽ ऽ।
आता द्विगु के साथ, कर्म में बने विशेषण,
ऽ ऽ ।। ऽ ऽ। ऽ। ऽ ।ऽ ।ऽ।।
कह ’मिश्रा’ कविराय, व्रीहि में पद का न ठौर,
।। ऽऽ ।।ऽ। ऽ। ऽ ।। ऽ । ऽ।
तत्पुरुष में कारक, चिह्न छिपता कहीं और।।
ऽ।।। ऽ ऽ।। ऽ। ।।ऽ ।ऽ ऽ।
कवित्त (मनहरण)
लक्षण: मनहर घनाक्षरी इकत्तीस वर्ण, आठ आठ आठ सात, यति गुरु अन्त। यह एक सम वर्णिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में इकत्तीस वर्ण होते हैं।
16 एवं 15 वर्गों पर यति होती है। चरणान्त में एक गुरु वर्ण अवश्य रहता है। कवित्त अनेक है
उदाहरण:
अनजान नर किया करता है खोटे काम,
रोग-शोक भोगे, मले हाथ धीर छोड़ता।
अपमान जान, आन, शान धूल मिली देख,
भाग्य कोस, माथा ठोक, आश-दीप तोड़ता ।।
बन आप कारण, विधान बना रोपे पौध,
बीज वो बबूलों के ही, खेत खूब गोड़ता।
फल पाय कैसे भले, फूल-माल मिले कहाँ,
जिन्दगी में रहा पाप-कंटकों को जोड़ता ।।
कवित्त (घनाक्षरी)
लक्षण :
इसमें भी 31 वर्ण होते हैं। 16वें और 15वें वर्गों पर यति होती है। कवित्त में वर्णों के क्रम का कोई बंधन नहीं होता।
उदाहरण:
- इन्द्र जिमि जम्भ पर, बाडव सुअम्भ पर, (16 वण)
- रावन सदम्भ पर रघुकुलराज हैं। (15 वर्ण)
- पौन बारि बाह पर, सम्भु रतिनाह पर,
- ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।।
- दावा द्रुमदंड पर चीता मृग झुंड पर,
- भूषन वितुंड पर, जैसे मृग राज हैं।
- तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
- त्यों मलिच्छ बंस पर, सेर सिवराज हैं।
सवैया
लक्षण :यह एक सम वर्णिक छंद है। प्रत्येक चरण में 22 अक्षरों से लेकर 26 अक्षरे तक के छंदों को ‘सवैया’ कहा जाता है। इसके चारों चरणों में तूक मिलता है। मत्तगयंद, दुर्मिल, सुमुखी, किरीट, वीर (आल्हा) आदि इसके अनेक रूप हैं।
उदाहरण: मत्तगयंद सवैय
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहूँ, सिद्धि नवौ निधि को सुख नन्द की गाय चराय बिसारौं ।
रसखान कबौं इन नैनन सो ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हौं कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।
वीर छंद
लक्षण : वीर छंद सोलह पन्द्रह हों, मात्रा गुरु लघु अंत बनाय।
आल्हा जगनिक कवि ने गाया, भरे वीरता जिसे सुनाय।।
उदाहरण: कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार,
सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी-सी करती थी अरि-संहार ।
अश्ववाहिनी, बाँध पीठ पै पुत्र, दौड़ती चारों ओर,
अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ चलान जोर ।।
दुर्मिल सवैया
लक्षण: दुर्मिल सवैया आठ सगण
उदाहरण: जग में दुखड़ा किससे कहिये, अपनी धुन में जग है जकड़ा।
निज घात लगा, निज जाल बिछा, सब ही तकते बनके मकड़ा।
मत रो दुखड़ा, उखड़ा उखड़ा मुखड़ा न बना, रह तू अकड़ा।
बचते वह ही, जिसने धर धीर, यहाँ करुणाकर को पकड़ा ।।
किरीट सवैया
लक्षण : किरीट सवैया आठ भगण।
उदाहरण:
आप भले तब होंय, कहें मत,
“है हम उत्तम और भले बस।”
बोल भले नित ही कहिए सब
ही अपनाय लगाय गले हँस ।।
ऐंठ बनें खुद आप खजूर न,
धूप बचे वट वृक्ष तले जस ।
दोपहरी विलमाय जु “छाँव
भली” कहता मुख से वह बेवश ।।
सारवती छंद
लक्षण : सारवती त्रिभगण गुरु अन्त ।
आग लगे, तब कूप खने।
भूख लगे, तब बोय चने।।
सूझ पड़े, जब काल खड़ा।
मूरख है, उससे न बड़ा।
मुक्त छंद
यह छंद न तो मात्रिक है न ही वर्णिक; क्योंकि इसमें मात्रा या वर्ण का कोई बंधन नहीं रहता है। काव्यशास्त्रीय परंपरा के छंदों के बंधन से मुक्त होने के कारण ही इसे ‘मुक्त छंद’ कहा जाता है। आजकल मुक्त छंद ही ज्यादा प्रचलित हैं।
उदाहरण:
साँप (अज्ञेय)
साँप !
तुम सभ्य तो
नहीं,
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछू (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ पाया?
इंद्रवज्रा : (551-551-151-55)
इस छंद में दो तगण, एक जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं।
उपेंद्रवज्रा : (151-551-151-55)
इस छंद में जगण, तगण, जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं यानी कुल 11 वर्ण ।
उपजाति :
‘इंद्रवज्रा’ और ‘उपेंद्रवज्रा’ के संयोग से बननेवाला यह छंद बहुत ही व्यापक क्षेत्र ग्रहण करता है, इसलिए उपर्युक्त दोनों छंदों को समझना बहुत ही जरूरी है। चौदह वृत्तों वाले इस छंद के प्रत्येक चरण के आदि में ‘गुरु’ की जगह ‘इंद्रवज्रा’ और ‘लघु’ की जगह ‘उपेंद्रवज्रा’ रखे जाते हैं। इस छंद के कई प्रकार होते हैं
क. आर्द्रा :
इसके प्रथम चरण में जगण, तगण, दो गुरु होते हैं। दूसरे और तीसरे चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं तथा अंतिम चरण मे जगण, तगण और दो गुरु रखे जाते हैं।
ख. भद्रा :
इसके पहले और तीसरे चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं। दूसरे और चौथे चरण में जगण, तगण, जगण और दो गुरु वर्ण रखने चाहिए।
ग. प्रेमा :
इसके प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ चरणों में दो जगण, तगण, जगण और गुरु होते हैं। केवल तृतीय चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु हुआ करते हैं।
घ. रामा :
इसके प्रथम और द्वितीय चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं। इसके तृतीय और चतुर्थ चरणों में जगण, तगण, जगण और दो गुरु हुआ करते हैं। ङ कीर्ति इसके पहले चरण में जगण और दो गुरु रखे जाते है ।
च. वाणी :
इसके पहले, तीसरे और चौथे चरणों में दो तगण, जगण और दो तथा दूसरे चरण में जगण, तगण और दो गुरु रखे जाते हैं
छ. ऋद्धि :
इसके पहले, तीसरे और चौथे चरणों में जगण, तगण, जगण और दो गुरु तथा दूसरे चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु रखने चाहिए।
ज. सिद्धि/बुद्धि :
इसके पहले चरण में दो तगण, जगण, दो गुरु तथा दूसरे, तीसरे और चौथे चरणों में जगण, तगण, जगण और दो गुरु रखने चाहिए।
झ, बाला :
इसके पहले,दूसरे और तीसरे चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु तथा चौथे चरण में जगण, तगण जगण और दो गुरु रखे जाते हैं।
ञ. माला :
इसके पहले और दूसरे चरणों में जगण, तगण, जगण, दो गुरु और तीसरे एवं चौथे चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं।
ट, माया :
इसके पहले और चौथे चरणों में दो तगण, जगण और दो गुरु तथा दूसरे और तीसरे चरणों में जगण, तगण, जगण और दो गुरु हुआ करते हैं।
ठ. जाया :
इसके पहले, दूसरे और तीसरे चरणों में जगण, तगण, जगण और दो गुरु तथा चौथे चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं।
ड, शाला :
इसके पहले, दूसरे और चौथे चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु तथा तीसरे चरण में जगण, तगण, जगण और दो गुरु होते हैं।
ढ. हंसी :
इसके पहले और तीसरे चरणों में जगण, तगण, जगण, दो गुरु और दूसरे एवं चौथे चरणों में दो तगण, जगण और दो गुरु होते हैं।
दोधक : (51-511-511-55)
चार चरणों वाले इस छंद के प्रत्येक चरण में तीन भगण और दो गुरु हुआ करते हैं। इस छंद में काव्य-रचना बहुत ही आसान है।
रुचिर/गीत :
यह छंद तीस मात्राओं का होता है, जिसमें 16वें और 14वें मात्राओं पर यति होती है। इसके अंत में दो गुरु या दो लघु या फिर एक गुरु और एक लघु हुआ करते हैं। इसके प्रारंभ की पंक्ति ही टेक होती है।
मंदाकांता:
(555-511-111-551-551-55)
इस छंद में कुल 17 वर्ण होते हैं, जिसमें क्रम से मगण, भगण, नगण, दो तगण और गुरु वर्ण होते हैं।
मंदाकांता :
(555-511-111-551-551-55)
इस छंद में कुल 17 वर्ण होते हैं, जिसमें क्रम से मगण, भगण, नगण, दो तगण औरदो गुरु वर्ण होते हैं। महाकवि कालिदास द्वारा विरचित गीतिकाव्य ‘मेघदूत’ मंदाकांता छंद में है।
शिखरिणी :
(155-555-111-511-15)
यह 17 वर्णोंवाला छंद है, जिसमें 11वें वर्ण पर यति होती है। इस छंद में कमशः यगण, मगण, नगण, भगण, लघु और गुरु होते हैं।
सुमुखी :
(151-151-15-151-151-151-151-15)
सात जगणों और लघु-गुरु वर्णोंवाला यह एक वर्णिक सवैया है, जिसे हम ‘मानिनी’ और ‘मल्लिका’ के नाम से भी जानते हैं।
नित :
इस छंद में 12 मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में नगण या लघु-गुरु होते हैं। इस छंद की लय फारसी के इस ‘बहर’ से मिलती है—मुफ़्त अलन मफ़ा अलन।
त्रिभंगी:
यह एक मात्रिक छंद है, जिसमें कुल 32 मात्राएँ होती हैं। इस छंद में 10-8-8-6 पर यति और अंतिम मात्रा में गुरु का विधान है। इसके किसी चौकल में “जगण’ नहीं होता।
अनुष्टुप :
यह चार चरणोंवाला छंद है, जिसके प्रत्येक चरण में 8 वर्ण होते हैं।
इसका लक्षण इस प्रकार है-
5वां वर्ण लघु, 6ठा वर्ण गुरु, दूसरे और चौथे यानी सम चरणों में 7वां वर्ण लघु ।
उदाहरण:
पहला चरण – जो भले का हों शीघ्र,
दूसरा चरण – करो पूरे रुको नहीं।
तीसरा चरण – करो न देर प्यारे ये,
चौथा चरण – श्वाँस बंद न हो कहीं।।
सुपवित्रा :
यह 14 वर्णोंवाला छंद है, जिसमें 8वें और 6ठे वर्णों पर यति का विधान है। कहते हैं कि इस छंद की काव्य-रचना बहुत ही आसान और सुग्राह्य होती है।
एक उदाहरण देखें-
कर-कर नर नित, निपुण बने हैं।
भर-भर गुण जन सुजन बने हैं।।
घर-घर जुड़ कर, नगर बने हैं।
डग-डग जुड़ कर, डगर बने हैं।
यशोदा : (151-55)
इस छंद में एक जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं। इसमें भी काव्य-रचना बहुत आसान है। एक उदाहरण देखें
बनो न भोगी, बनो न ढोंगी।
बनो सुयोगी, रहो निरोगी ।।
अनंद : (151-515-515-15)
21 मात्राओं वाले इस छंद में क्रमशः जगण-रगण-रगण-लघु गुरु होते हैं । इस छंद में प्रेरणा/प्रयाण-गीत रचना अच्छा लगता है। एक उदाहरण देखें-
डरे-डरे रहो न होश-जोश-घोष से ।
बढ़ो,बढ़ो,अड़ो, सुभाषचंद्र बोस से ।।
सारंगी:
इस छंद में 5 मगण और 8वें एवं 7वें वर्ण पर यति होती है। यदि इसी में स्वेच्छापूर्वक
यति का प्रयोग हो तो वही ‘लीला खेल’ छंद बन जाता है। एक उदाहरण देखें ….
मैंने थोड़ा-सा माँगा था, खाने पीने-जीने को।
तूने ऐसा दे डाला है, बोझा मेरे सीने को ।।
खाने-पीने-जीने को, मैंने थोड़ा ही माँगा था।
बोझा मेरे सीने को, तूने ऐसा दे डाला था ।।
नलिनी :
(115 115-115-115-115)
15मात्राओं वाले इस छंद में लगातार 5सगण हुआ करते हैं। इसे ‘भ्रमरावली और ‘मनहरण’ नाम से भी जाना जाता है।
नील : (511-511-511-511-511-5)
इस छंद में 5 भगण और एक गुरु वर्ण होते हैं। इसकी लय घोड़े की गति के समान होने के कारण इसे ‘अश्वगति’ भी कहा जाता है। इसका एक अन्य नाम ‘विशेषक’ भी है।
धार :
सात मात्राओं वाले इस छंद में कम-से-कम 3 गुरु और एक लघु वर्णरहते हैं। इसका दूसरा नाम ‘तारा छंद’ भी है। इसमें भी काव्य-रचना आसान है।
एक उदाहरण देखें
टूटी साँस।
छूटी आश।।
आओ आप।
मेटो ताप ।।
वंदन :
18 मात्राओं वाले इस छंद के अंत में पहले गुरु फिर लघु वर्ण होते हैं।
एक उदाहरण देखें:
मूरों के संग ना, दिखा आक्रोश ।
हो मंडूक सभा, रहो खामोश ।।
महाभुजंग प्रयात :
(155-155-155-155-155-155-155-155)
इस छंद में लगातार 8 यगण हुआ करते हैं। एक उदाहरण देखें…
तमाशा बनाया गया है, उसे जो, नहीं बुद्धि से काम लेता यहाँ है
नचाता जमाना उसे, जो पराये-सहारे नहीं छोड़ देता यहाँ है ।।
गुलामी उसी के गले डाल फंदा, गला घोंटती स्वप्न का, चाहतों का।
वही जीव-आत्मा गिरे गर्त में, हो गया दास है, जो बुरी आदतों का ।।
विधाता/शुद्धगा:
इसे उर्दू में ‘गज़’ कहा जाता है। इस छंद की खासियत यह है कि इसमें 1ली, 8वीं और 15वीं मात्रा लघु होती है तथा हर 14वीं मात्रा पर यति का विधान होता है।
तोटक : (15-115-115-115)
इस छंद में चार सगण हुआ करते हैं। एक उदाहरण देखें…
कवि तो भरते छवि से धरती।
रवि भी भरते छवि में धरती।
तम को रवि की किरणें हरतीं।
गम को कवि की कविता हरती ।।
उल्लाला:
यह तेरह मात्राओं और दो चरणों वाला ऐसा छंद है, जिसमें लघु गुरु का कोई नियम नहीं है। एक उदाहरण देखिए …
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को ।।
छप्पय: यह छह चरणों वाला ऐसा छंद है, जिसमें रोला और उल्लाला का बेजोड़संगम देखा जाता है। इसके प्रथम चार चरणों में 24-24 मात्राएँ और अंतिम दो चरणों 176 अथवा 28 मात्राएँ होती हैं। यह एक मात्रिक छंद है।
एक उदाहरण देखें
जिसकी रज में लोट-पोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक सरक कर खड़े हुए हैं।।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।।
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुमको निरख, मन क्यों न हो मोद में ।।
विश्लोक:
यह 16 मात्राओं वाला छंद है, जिसमें 5 वाँ और 8 वाँ वर्ण लघु होता है। उदाहरण…
जुगनू तब तक चमक दिखाता,
उड़ता जब तक वह रह पाता।
विद्युन्माला :
(555-555-55)
इस छंद में दो मगण और दो गुरु होते हैं तथा 4-4 वर्णों पर यति होती है। उदाहरण देखें…
आना-जाना तो रोजाना।
तूने क्यों नाता है माना ?
मेरे-तेरे में ही माया।
है क्या रे! तेरी ये काया ।।
स्वागता :
(515-11-511-55)
इस छंद में क्रम से रगण, नगण, भगण और दो गुरु वर्ण होते हैं।
मालती : (111-151-151-515)
इस छंद का अन्य नाम ‘यमुना छंद’ है जिसमें एक नगण, दो जगण और एक रगण
होते हैं।
मोदक : (SI-STI-S11-SII)
इस छंद में चार भगण होते हैं। एक उदाहरण देखें …
जो नर जीवन नाव न खेकर,
छोड़ मुकद्दर पर बल देकर,
भँवर बने उसकी तब भक्षक,
डूब मरे, न मिले फिर रक्षक ।
इमरु:
यह छंद बहुत ही सरल है; क्योंकि इसमें लगातार 32 वर्ण लघु ही होते हैं और 11-11-5 पर यति होती है। एक उदाहरण देखें…
प्रणय पवन बह, भरत जगत सब,
नगर, डगर, घर, अनत मदन मद ।
चमक-दमक नभ, अमल कमल सर,
लहर-लहर हर, तन-मन गद-गद ।।
भुजंगप्रयात :
(155-155155-155)
इसमें चार यगण हुआ करते हैं। एक उदाहरण देखें..
जहाँ अश्रुओं के पनाले बहे हों,
जहाँ नैन प्यासे सदा से रहे हों;
जहाँ मीत छूटे कई वर्ष के हों,
उन्हें चैन कैसे बिना दर्श के हों।
भंग :
(11-111-111-111-111-111-51)
इस छंद में 6 नगण, एक गुरु और एक लघु होते हैं तथा 6-6-8 वर्णों पर यति होती है।
मालिनी:
(111-111-555-155-155)
जिस छंद के प्रत्येक चरण में दो नगण, एक मगण और दो यगण तथा 8-7 वर्णों पर यति हो।
उदाहरण:
पल-पल जिसके मैं, पंथ को देखता था,
निशिदिन जिसके ही, ध्यान में था बिताता।
उर पर जिसके है, सोहती मुक्तमाला,
वह नवनलिनी-सी, नैनबाला कहाँ है?
द्रुतविलंबित :
(111-511-511-515)
इस छंद के हर चरण में क्रमशः एक नगण, दो भगण और एक रगण हो। इसे
‘सुंदरी’ छंद भी कहा जाता है। उदाहरण..
मधुर माधव की ऋतु आ गई,
अब दिशा लगती कुछ और ही।
हर लता पर ही कुसुमावली,
विकसती हँसती नभ चंद्र-सी ।।
गीतिका:
यह एक मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं। अंत में रगण या लघु गुरु होते हैं और 14-12 वर्णों पर यति तथा 3री, 10वीं, 17वीं और 24वीं मात्रा के लघु होने का विधान है। इसके दो-दो चरणों में तुक का मिलना अत्यावश्यक है।
एक उदाहरण देखें
यत्न कर कुछ देश के हित, अंत करिए भीतिका।
क्यों निहारे धाम धन जन, पंथ तज अनरीतिका ।।
कष्ट सहके जो पराये, काम में नित आएगा।
प्राप्तकर फल जन्म का वह, नाम कुछ कर जाएगा।
कुंडल:
इस छंद में 12वीं और 10वीं मात्राओं पर यति होती है। इसके अंत में दो गुरु वर्ण रखे जाते हैं।
एक उदाहरण देखें-
शासन है बेसुध पर, प्रजा जल रही है।
चाटुकार
लोगों की, दाल गल रही है।।
संविधान-तन पर अब, खंग चल रही है।
व्यग्र,विवश जनता निज, हाथ मल रही है।।
प्रभाती:
इस छंद को ‘उड़ियाना छंद’ भी कहा जाता है। इसमें 12 वीं और 10 वीं मात्राओं पर यति और अंतिम मात्रा गुरु होती है। सूर्योदय का एक उदाहरण देखें..
कमलों पर भ्रमरों का, देख लो मचलना।
सुमनों पर तितली का, झूम-झूम उड़ना ।।
नील झील में से यों, सूरज का उगना।
अति सुंदर लाल-लाल, गेंद-सा उछलना ।।
हरिप्रिया:
इस छंद का अन्य नाम ‘चंचरी छंद’ है। इसमें 12-12-12-10 मात्राओं पर यति और
पदांत में एक गुरु होने चाहिए। एक उदाहरण..
माँगना है अपराध, दीन बन न विश्व-बीच,
तुच्छ हुए विष्णु दान-पात्र माँगने से।
फैलाते हाथ, हस्त रेखायें सुकुच जाये,
भाग्य फूट निष्क्रिय हो, भीख माँगने से ।।
चामर :
(515-151-515-151-515)
इस छंद को ‘तूण’ और ‘सोम वल्लरी’ भी कहते हैं । इसमें क्रम से रगण,जगण,रगण,जगण
और रगण होते हैं। एक उदाहरण देखें…
ये छुईमुई पना, हटाइए, हटाइए ।
शांत हो अमर्ष,हर्ष, शोक को न लाइए ।।
स्वार्थ-त्याग से महान, व्यक्ति ही सदा बना ।
काम राष्ट्र के करे, भली यही उपासना ।।
सेवा :
(551-515-115-1)
इस छंद में क्रमशः तगण,रगण,सगण और अंत में लघु वर्ण होते हैं। एक उदाहरण
धोया मला,चमाचम चाम।
धोया मला न अंतःधाम ।।
टेसू बना,सजा यह रूप ।
जाना कभी न आत्म-स्वरूप ।।
माताः
(555-11-11-55) यति होती है। एक उदाहरण इस छंद में मगण, दो नगण और अंत में दो गुरु वर्ण होते हैं। इसमें 5-6 वर्गों पर आशायें जब, मन बस जातीं।
इच्छायें तब, फिर जग जाती ।।
विश्वासी बन, कर श्रम-आशा ।
मेटे दीपक, तिमिर-निराशा ।।
कुंज:
(551-15/- 5/5-115-515) इस छंद में क्रमशः तगण, जगण, रगण, सगण और रगण होते है। इसमें 8-7 वर्णी पर यति का विधान होता है।
एक उदाहरण
सोचे जग क्यों असार, सार सभी ओर है।
काले घन को निहार, नाच रहा मोर है।।
छूते मन फूल पात, रम्य धरा धाम है।
कैसे रस,रूप,गंध, सार भरे ग्राम है ।।
वासना :
(11-115-151-515)
इस छंद में क्रम से नगण, सगण, जगण और रगण हुआ करते हैं।
एक उदाहरण
जब मन कुभावना, रहे डरा।
बह बकत स्वप्न में, “मरा,मरा ।।”
दिल धड़क, धीरता धरे कहाँ ?
मन-शशक, साहसी बने कहाँ ?
नोटः
यहाँ ‘मन-शशक’ के एक साथ कई अर्थ सटीक बैठते हैं। जैसे-मनरूपी खरगोश,सशंकित मन, डरा-डरा-सा मन आदि । इस कारण से इसमें एक साथ रूपक औरश्लेष दोनों अलंकार हैं।
सुलक्षण:
इस छंद में 14 मात्रायें होती हैं। इसमें 4-4 मात्राओं के बाद गुरु-लघु रखे जाते हैं। एक उदाहरण..
यह संसार, बन कब भार ।
जब हो मर्ज,कर्ज अपार ।।
जननी अश्रु, कब न सम्हार ।
जब हो पुत्र, मूर्ख-गँवार ।।
उपमान:
इस छंद में 13 वीं और 10 वीं मात्राओं पर यति होती है तथा अंत में गुरु वर्ण का विधान है। इसे ‘दृढ़पद छंद’ भी कहा जाता है। एक उदाहरण
राजनीति में पकड़ लें, साथ छाँट नेता।
चलती उसकी, पुलिस को, ऐंठ डाँट देता ।।
घुलमिल पचा हराम का, मौज़ उड़ा लोजी ।
मक्खन उन्हें लगाइए, पाँय आप रोजी ।।
आभार :
(551-551-551-551-551-551551-551)
इस वर्णिक छंद में आठ तगण होते हैं।एक उदाहरण देखें…
जो देख लेता जहाँ अंश जैसा,
लगे विश्व वैसा उसे, दृष्टि-आधार ।
ज्ञानी खुले नेत्र देखे, कहे ‘नेति”
ढोंगी मुँदे नेत्र बोले, “यही सार ।।”
शब्दार्थ : न + इति – नेति = और भी बहुत हैं। मुँदे नेत्र = आँख बंद करके अपने को सर्वज्ञ मानने वाले ।
लेख के बारे में-
इस आर्टिकल में हमने “छंद किसे कहते हैं ?” के बारे में पढे। अगर इस Notes रिसर्च के बाद जानकारी उपलब्ध कराता है, इस बीच पोस्ट पब्लिश करने में अगर कोई पॉइंट छुट गया हो, स्पेल्लिंग मिस्टेक हो, या फिर आप-आप कोई अन्य प्रश्न का उत्तर ढूढ़ रहें है तो उसे कमेंट बॉक्स में अवश्य बताएँ अथवा हमें notesciilgrammars@gmail.com पर मेल करें।
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